सब कुछ तो है बहुत साफ़ आज-कल ,
अब कौन किसे दे रहा इन्साफ आज-कल !
उजड़ा है घर किसी का किसी के गुनाह से,
मुज़रिम के सौ गुनाह भी हैं माफ आज कल !
कातिलों के शहर में नज़र आए कहाँ सुबूत ,
ओढ़ कर मस्त सो रहे लिहाफ आज-कल !
खरबों में बनी इमारत है न्याय का मंदिर ,
होता है जहां रूपयों का ही जाप आज-कल !
पुण्य की गठरी तो उधर कोने में पड़ी है ,
आँगन में उनके हँस रहा है पाप आज-कल !
रग-रग में समाया है रिश्वत का ज़हर इतना ,
डरने लगे हैं उनसे कई सांप आज-कल !
बेरहमी से ले रहे हैं गरीबों के दिल की हाय ,
बेअसर है अमीरों पर अभिशाप आज-कल !
- स्वराज्य करुण